Wednesday, April 8, 2009

ज़िन्दगी की दौड़

ज़िन्दगी की दौड़ में
आगे बढने की होड़ में
क्या कुछ पीछे छोड़ आए हैं
रिश्ते नाते तोड़ आए हैं

जब हम छोटे बच्चे थे
सपने देखा करते थे
अपने पैरों पर दौडेंगे
सारी पाबंदियां तोडेंगे

आज जब वो दिन आया है
ख़ुद को अकेला ही पाया है
चवन्नी में मिलने वाली खुशी
डॉलर से भी न खरीदी जा सकी

हरे पेडों पर पतझड़ है
हमारी झोली भी अध्-भर है
फ़िर भी खुश होने में संकोच है
आज लगता नाकाफी हर कोष है

अपने मन के पास पहुंचे
एक मन सोना हाथों में भींचे
आंखों में आँसू थे और मुख पर अपमान
चंद सिक्कों के लिए क्या हो गया इंसान

आदर से मुझे बिठाया
और पूछा की मैं क्यूँ आया
मेरे पल मुझे लौटा दो
मेरी खुशियाँ मुझे लौटा दो

विनती की हाथ जोड़कर
मन को मन-भर सोना अर्पण कर
अन्दर ही अन्दर सिमट गया मैं
मन पसीज कर रह गया मैं

मन की गोद में सुंदर पंछी
सोने पर आ कर जो बैठी
उड़ गई मैले कुसुम बिखराके
मुझको बस यही सिखाके

समय अटल है,
धन बस छल है
जो खुशी बेची धनार्जन में
सो क़र्ज़ चुकाना है जीवन में

ज़िन्दगी की दौड़ में
आगे बढने की होड़ में
जो खुशी बेची धनार्जन में
सो क़र्ज़ चुकाना है जीवन में

It was written when I was in US and pondering about the futility of the whole exercise. Frankly I did not like being in US because I missed my country and my wife... Good to be back!

4 comments:

  1. Welcome Back to India!!!!

    I hope now you are having gala time with your wife.
    In some stanza you have maintained good rhyming.

    Keep going

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  2. Nice work Gaurav. Hope fully some day we can discuss more of this face to face.

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