Wednesday, February 25, 2009

मृग तृष्णा

ग़मों का दौर चला,
तो साथ हम भी हो लिए
हसने का कारण न था
तो बस थोडा रो लिए

मुस्कुराहटें शीत चांदनी
बन के रिझा रही थी
चाँद में भी मैल ढूंड
हम फिर दुखी हो लिए

मंदिरों में प्रसाद चदाये,
मस्जिदों में अज़ान लगायी
बदले में जब ख़ुशी मांगी,
दुर्भाग्य जीवन में स्वयं लिख लिए

यह तृष्णा कब समाप्त होगी,
मृग को कस्तूरी कब प्राप्त होगी
फिर एक भीनी सी खुशबु आई
फिर उस और आतुर हो चल

This poem is dedicated to a friend of mine who was very disappointed with the turn of events at work place.... Sadly, life works on needs... not how one fulfils them...

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