Monday, February 9, 2009

अपनी कथा

ह्रदय में कोलाहल अपार है
ललाट पर शान्ति चमकती है
शब्दों में शिशु की किलकारी
अर्थ में अनाथ की कराहें गूंजती हैं
जीने के हौसले बुलंद दिखते हैं लेकिन
मन-ही-मन आस की मोमबत्ती पिघलती है

देह क्रोध के अंगारों से जलती है
अधरों पर फ़िर भी मुस्कान थिरकती है
जो कलि खिलके त्रिभुवन मह्काती
किसी अपिरिचित अनापेक्षित पतझड़ में
अपनी अध्-खुली पंख्दियाँ गिरते देखती है
ऐसी व्याकुलता के कन्धों पर
भावनाओं की अर्थी प्रतिदिन निकलती है

एक बार जब यह व्यथा-कथा सुनाई
आँखों में एक टिमटिमाहट उभर आई
अश्रुओं का कारन सद्भावना न पाकर बोला
इन अश्रुओं का परिचय कराओ,
क्यों छलक आए, मुझे समझाओ
यह तो तुम नहीं मैं हूँ,
क्या तुम्हें अपनी कहानी लगती है?

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