ग़मों का दौर चला,
तो साथ हम भी हो लिए
हसने का कारण न था
तो बस थोडा रो लिए
मुस्कुराहटें शीत चांदनी
बन के रिझा रही थी
चाँद में भी मैल ढूंड
हम फिर दुखी हो लिए
मंदिरों में प्रसाद चदाये,
मस्जिदों में अज़ान लगायी
बदले में जब ख़ुशी मांगी,
दुर्भाग्य जीवन में स्वयं लिख लिए
यह तृष्णा कब समाप्त होगी,
मृग को कस्तूरी कब प्राप्त होगी
फिर एक भीनी सी खुशबु आई
फिर उस और आतुर हो चल
This poem is dedicated to a friend of mine who was very disappointed with the turn of events at work place.... Sadly, life works on needs... not how one fulfils them...
Wednesday, February 25, 2009
Wednesday, February 18, 2009
Follow the darkness
On a cliff I climbed with gusto,
While patience held, skin couldn't
Sweat flowed even when blood dried
Spirit stretched beyond the brawn
Sky still seemed too far, moon further
Effort was dwarfed, still night beckoned
Trust the darkness, the voice said,
I trusted the promise of the voices
Clarions of caution could not catch
Defying the odds and advice, I rode
End of the earth I reached and realized
It was the wind that was leading
Down the valley I flew, while wind roared
Trust me and I will cushion your fall
From trance, I awoke as light of truth
lighted the night of treachery, and laughed
As I hit the ground, something cracked
a bit of heart, a bit of spirit
From the pain spawned a new soul,
vision was back and hair were grayed
While patience held, skin couldn't
Sweat flowed even when blood dried
Spirit stretched beyond the brawn
Sky still seemed too far, moon further
Effort was dwarfed, still night beckoned
Trust the darkness, the voice said,
I trusted the promise of the voices
Clarions of caution could not catch
Defying the odds and advice, I rode
End of the earth I reached and realized
It was the wind that was leading
Down the valley I flew, while wind roared
Trust me and I will cushion your fall
From trance, I awoke as light of truth
lighted the night of treachery, and laughed
As I hit the ground, something cracked
a bit of heart, a bit of spirit
From the pain spawned a new soul,
vision was back and hair were grayed
Monday, February 9, 2009
अपनी कथा
ह्रदय में कोलाहल अपार है
ललाट पर शान्ति चमकती है
शब्दों में शिशु की किलकारी
अर्थ में अनाथ की कराहें गूंजती हैं
जीने के हौसले बुलंद दिखते हैं लेकिन
मन-ही-मन आस की मोमबत्ती पिघलती है
देह क्रोध के अंगारों से जलती है
अधरों पर फ़िर भी मुस्कान थिरकती है
जो कलि खिलके त्रिभुवन मह्काती
किसी अपिरिचित अनापेक्षित पतझड़ में
अपनी अध्-खुली पंख्दियाँ गिरते देखती है
ऐसी व्याकुलता के कन्धों पर
भावनाओं की अर्थी प्रतिदिन निकलती है
एक बार जब यह व्यथा-कथा सुनाई
आँखों में एक टिमटिमाहट उभर आई
अश्रुओं का कारन सद्भावना न पाकर बोला
इन अश्रुओं का परिचय कराओ,
क्यों छलक आए, मुझे समझाओ
यह तो तुम नहीं मैं हूँ,
क्या तुम्हें अपनी कहानी लगती है?
ललाट पर शान्ति चमकती है
शब्दों में शिशु की किलकारी
अर्थ में अनाथ की कराहें गूंजती हैं
जीने के हौसले बुलंद दिखते हैं लेकिन
मन-ही-मन आस की मोमबत्ती पिघलती है
देह क्रोध के अंगारों से जलती है
अधरों पर फ़िर भी मुस्कान थिरकती है
जो कलि खिलके त्रिभुवन मह्काती
किसी अपिरिचित अनापेक्षित पतझड़ में
अपनी अध्-खुली पंख्दियाँ गिरते देखती है
ऐसी व्याकुलता के कन्धों पर
भावनाओं की अर्थी प्रतिदिन निकलती है
एक बार जब यह व्यथा-कथा सुनाई
आँखों में एक टिमटिमाहट उभर आई
अश्रुओं का कारन सद्भावना न पाकर बोला
इन अश्रुओं का परिचय कराओ,
क्यों छलक आए, मुझे समझाओ
यह तो तुम नहीं मैं हूँ,
क्या तुम्हें अपनी कहानी लगती है?
Subscribe to:
Posts (Atom)