Thursday, January 1, 2009

वो सुबह कभी तो आयेगी

आसमान जो कल तक दिखता था, वो गया कहाँ
छा गए हैं बादल घने, छुप गया सूरज मेरा कहाँ

मज़बूत हाथ आज कन्धों से लटकने लगे हैं
कंधे झुक गए हैं, आँखें के अंगारे बुझने लगे हैं

क्या हुआ की लश्करों के हौसले थकने लगे हैं
क्या हुआ की सपने धुंधले दिखने लगे हैं

दिल पर मायूसी है छा गई एका अक
विश्वास का दीपक बुझने लगा अचानक

विजय के इतना समीप दिखता था मंज़र
क्यूँ अब पराजय की दिखने लगी है डगर

आज मदिरा भी होश घुमाने में असक्षम है
सहना होगा, जीना होगा, यही धर्म है

की हर निशा की भोर होना अटल है
बस तुम हो या हो, यह प्रश्न है

भोर की प्रतीक्षा, ही जीवन का लक्ष्य हो
जीवित हों जब प्रेरणा का सूर्य उदय हो

निराश निशा का अंत सूर्य की आंच करे
बादलों को छलनी धूप के बाण करें

मन को प्रफुल्लित एक नई बात करे
मुस्कानों का वापस उधार नई आस करे

एक ऐसे जहाँ में ऐसी यह भोर हो
सपने जीना का जहाँ दस्तूर हो

वो सुबह कभी तो आयेगी, वो सुबह कभी तो आयेगी
जीते हैं इसी धुन में, मुस्कराहट पर कभी तो खुशी छायेगी
वो सुबह कभी तो आयेगी, वो सुबह कभी तो आयेगी

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